जमशेदपुर : पानी की बोतलों और डंडों से लैस आदिवासी महिलाओं का यह समूह झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले स्थित मुतुर्खुम गांव का है, जो अपने आसपास की साल के जंगलों में मीलों पैदल चलती हैं। इनका मसकद जंगलों को वन-माफिया की लूट से को बचाना है।
अपनी सुरक्षा के लिए केवल एक कुत्ते को साथ लेकर चलने वाली इन महिलाओं का घने वन में लगतार आना-जाना रहा है। इस तरह जंगल के साथ इनका गहरा सहजीवी रिश्ता बन गया है। अपने प्रयासों से इन्होंने 50 एकड़ जंगल और उसमें मौजूद वनस्पति व जीवों का संरक्षण करने में कामयाबी हासिल की है। यह वन झारखंड के मध्यवर्ती इलाके में पड़ता है, जोकि सरकारी बलों व वामपंथी उग्रवादियों के बीच मुठभेड़ का केंद्र रहा है।
महिलाओं के इस समूह को एकजुट करने वाली हैं 37 वर्षीय जमुना टुडु जो पिछले दो दशकों से वनों की कटाई के खिलाफ जंग लड़ रही हैं। जमुना ने शादी के बाद 1998 में गांववासियों को जंगल में उनकी भागीदारी के लिए तैयार कर वनों की रक्षा की इस चुनौती को स्वीकार किया था।
आज उनकी वन सुरक्षा समिति में 60 सक्रिय महिला सदस्य हैं जो दिन में तीन बार सुबह, दोपहर और शाम बारी-बारी से जंगल में गश्त लगाती हैं। और कभी-कभी रात में भी जब माफिया बदला लेने के मकसद से जंगल में आगजनी करते हैं तो उन्हें जंगल का दौरा करना भी पड़ता है।
जमुना की यह लड़ाई बेकार नहीं गई। भारत के राष्ट्रपति ने वन संरक्षण के प्रयासों के लिए उन्हें सम्मानित किया है।
जमुना ने आईएएनएस के साथ एक साक्षात्कार में बताया, “शादी के कुछ दिनों बाद जब मेरी सास, ननद और कुछ अन्य महिलाओं के साथ मैं जलावन की लकड़ी काटने के लिए जंगल गई तो मेरे मन में विचार आया कि अगर हम इसी तरह पेड़ों को काटते रहेंगे तो एक दिन सभी वन समाप्त हो जाएंगे।”
अपने इस अभियान में उन्हें वन माफिया के खिलाफ लड़ना पड़ा, जो उस कानून और आदिवासी पंरपरा की अवेहलना कर कीमती साल की लकड़ी के लिए पेड़ों की कटाई कर रहा था जिसके अनुसार पेड़ों को काटना निषेध है।
यह जानते हुए कि उसे प्रशासन की तरफ से कोई मदद नहीं मिलेगी जिनकी वन माफिया के साथ मिली भगत होती है, वह अपने मकसद के प्रति दृढ़ता से काम करती रहीं। जमुना ने गांव की कुछ महिलाओं से मदद मांगी लेकिन वे सभी उनकी बातों से हैरान थीं और साथ देने को तैयार नहीं थीं। उनका कहना था कि उन्हें गांव के पुरुषों से मुकाबला करना होगा। लेकिन 10वीं कक्षा तक पढ़ीं जमुना को अपना और अपने समुदाय का भविष्य निराशाजनक दिख रहा था, क्योंकि उन्हें लगता था कि उनकी रक्षा के लिए आनेवाले दिनों में कोई पेड़ व जंगल नहीं रहेंगे।
जमुना ने लोगों से पूछा कि जंगल नहीं रहेगा तो फिर पर्यावरण कैसे बचेगा। जमुना की समझ से गांव की अन्य महिलाएं व पुरुष भी धीरे-धीरे इत्तेफाक रखने लगे।
जमुना ने बताया कि उनका पालन पोषण ऐसे माहौल में हुआ था जहां प्रकृति के प्रति प्यार और आदर का भाव था। उनके पिता उड़ीसा में अपने खेतों में कई पेड़-पौधे लगाते थे, जहां उन्होंने पर्यावरण के महत्व को समझा।
मुतुर्खम गांव मे वन-माफिया शराब पीने के लिए किस प्रकार वनों को दोहन करते थे, इस संबंध में बताते हुए उन्होंने कहा कि वह गांव वालों की प्रतिक्रिया पर हैरान थी क्योंकि उनके आसपास के जंगल को नष्ट किया जा रहा था।
जमुना ने कहा, “मैंने गांव की कुछ महिलाओं से बात की और उनके साथ कई बार बैठकें कर उन्हें यह समझाया कि हमें अपने सुंदर वनों को बचाना है।”
धीरे-धीरे उन्होंने 25 महिलाओं का एक दल बनाया और उन्हें तीर-धनुष, बांस के डंडे और भाले से लैस किया और महिलाओं का यह समूह वनों की रक्षा के लिए निकल पड़ा।
धीरे-धीरे उनके साथ कई पुरुष भी जुड़ गए और वे सभी उस अभियान का हिस्सा बन गए, जिसका मकसद वनों की कटाई का विरोध करना था।
अब उनके सामने ऐसी चुनौतियां थीं जो उनके मार्ग में बाधा बनकर उन्हें हतोत्साहित कर थीं। लेकिन पक्के समर्पण के साथ वह अपने मकसद की ओर बढ़ती रहीं।
जमुना ने बताया, “शुरुआत में गांव के लोगों से कई झड़पें हुईं। कई बार माफिया के साथ भी तनातनी हुई। लेकिन मैंने अपने दल की सभी महिलाओं से कहा कि इस यात्रा में हमारे सामने अच्छे और बुरे मौके भी आएंगे लेकिन हमें अपना संघर्ष जारी रखना है।”
उनके दल ने रेलवे अधिकारियों को इस बात के लिए मनाया कि वे रेलवे से लूट की लकड़ी ले जाने पर रोक लगाएं।
जमुना ने कहा, “वर्ष 2088-09 में माफिया लोगों ने हमारे ऊपर घातक हमले किये और रेलवे स्टेशन से लौटते समय उन्होंने हम पर पत्थर बरसाए, जिसमें हम सभी जख्मी हो गए।”
जाहिर है कि जमुना के कामों से उनका व्यवसाय प्रभावित हो रहा था, इसलिए मुख्य रूप से वही माफिया के निशाने पर थी। उस पर और उसके पति पर घातक हमले किए गए।
जमुना ने कहा, “मुझे बचाने के क्रम में मेरे पति को सिर में चोट लगी। अंधेरा था और हम किसी तरह वहां से भाग निकले। उस दिन हम मौत के मुंह से बाल-बाल बचे”।
इसके बाद भी उसकी लड़ाई जारी रही। 15 साल में माफिया से उनकी कई बार मुठभेड़ हुई लेकिन जमुना अपने समुदाय में संवदेना जगाती रहीं। उन्होंने वन सुरक्षा समिति बनाई, जिसने 50 हैक्टेयर जंगल का संरक्षण करने में कामयाबी पायी है।
आदिवासी समुदाय जंगल के बिना जीवित नहीं रह सकता। उसे जलावन की लकड़ी समेत अपनी कई जरूरतों की पूर्ति के लिए जंगल पर निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन वे यह सुनिश्चित करते हैं कि वे अपनी जरूरतों को सीमित दायरे में रहकर ही पूरी करें।
जमुना ने कहा कि हम अपने किन्हीं उद्देश्यों के लिए पेड़ों की कटाई नहीं करते बल्कि गिरे हुए पेड़ों व उनकी शाखाओं का उपयोग करते हैं।
वन विभाग ने उनके गांव को गोद ले लिया है जिसके बाद मुतुर्खम गांव में पानी मिलने लगा है और गांव में स्कूल भी खुल गया है। 2013 में जमुना को ‘एक्ट ऑफ सोशल करेज’ के वर्ग में गॉडफ्रे फिलिप्स ब्रेवरी अवॉर्ड से नवाजा गया और इस साल अगस्त में नीति आयोग ने उन्हें ‘वुमेन ट्रांसफॉर्मिग इंडिया’ अवॉर्ड प्रदान किया।
आज वह कोल्हन खंड में विभिन्न वन समितियों के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाती हैं। जमुना ने तकरीबन 150 समितियों का गठन किया है जिनके 6000 सदस्य हैं और ये सभी वनों की रक्षा के लिए उनके आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं। वह आगे और भी बहुत कुछ करना चाहती हैं।
उन्होंने कहा, “मेरे पास सीमित संसाधन हैं इसलिए मैं इतने संसाधनों को लेकर प्रदेश के गांवों से बाहर नहीं जा सकती। लेकिन अगर हमें सहयोग मिले तो हमारे जैसे बहुत सारे वनों की रक्षा हम कर सकते हैं।”
(यह फीचर आईएएनएस और फ्रैंक इस्लाम फाउंडेशन के सहयोग से विविध, प्रगतिशील व समावेशी भारत को प्रदर्शित करने के लिए शुरू की गई विशेष श्रृंखला का हिस्सा है।)