सारा गगन मंडप है…. सारा जग बाराती …. (पुष्करणा सावा )

सारा गगन मंडप है। सारा जग बाराती है।
विश्व की सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता के लिये प्रयुक्त किया जाने वाला ‘ओलम्पिक’ शब्द बीकानेर शहर के लिये अपनत्व भरा शब्द हैं। इसका कारण यह है कि बीकानेर के पुष्करणा ब्राह्मण समाज हर दो वर्ष से होने वाला सामूहिक सावा (विवाह का मूहूर्त) भी ‘ ओलम्पिक ‘ सावे’ के नाम से पहचाना जाता है। इस सावे को ’ ओलम्पिक सावा’ कहे जाने के अनेक कारण है। इसका पहला कारण तो यह है कि जिस प्रकार ओलम्पिक गेम्स हर चार साल में आयोजित होते है उसी प्रकार वर्ष 2005 से पहले पुष्करणा ब्राह्मणों का यह सामूहिक सावा भी हर चैथे वर्ष आयोजित होता था। (वक्त एवं परिस्थितियों की मांग के अनुसार वर्ष 2005 के बाद इसके अंतराल को घटा कर दो वर्ष कर दिया गया) इस सावे को ओलम्पिक कहे जाने की दूसरी वजह यह मानी जाती है कि यह सावा चूंकि ‘शिव-पार्वती’ अथवा अन्य किसी देवी-देवता के नाम से निकाला जाता है इसलिय इस दिन विवाह करने के लिये वर-वधु के नाम से अलग से सावा/मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहीं रहती। यह विवाह का सामूहिक मुहूर्त होता है। इसलिये इस दिन पूरे शहर में शदियों की धूम मची रहती है। इसी प्रकार एक ही सावे में पुष्करणा समाज के सर्वाधिक विवाह होने के कारण वर पक्ष एवं वधू पक्ष को कुछ मात्रा में आर्थिक राहत भी मिलती है। ऐसे और भी अनेक बिन्दु है जो इस सामूहिक सावे को समाज में लोकप्रिय बनाए हुए हैं। इसी लोकप्रियता के चलते सभी सावों की तुलना में इस सावे पर पुष्करणा में सर्वाधिक विवाह संस्कार सम्पन्न होते हैं। जानकारों की मानें तो 2011 के पुष्करणा आॅलम्पिक सावे में तकरीबन 200 से 250 विवाह सम्पन्न हुए थे और इस बार यह संख्या 300 से 350 तक पहुँचने के अनुमान लगाए जा रहे हैं।
जैसलमेर से आया कांसेप्ट
एक बड़े सामूहिक समाज मे हर स्तर के लोग रहते हैं। सभी की पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियां अलग-अलग तरह होती है।सभी परिवारों को अपने बच्चो के विवाह आदि संस्कार उचित समय पर सम्पन्न करवाने ही होते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर पुष्करणाब्राह्मण समाज में लगभग 1300 वर्ष पहले जैसलमेर में इस सामूहिक सावे की स्थापना की गई ताकि समाज के अधिकांश विवाह एक ही जगह और एक ही मुहूर्त में अत्यधिक कमी आती है बल्कि एक प्रकार का सामाजिक सम्बल भी प्राप्त होता है। यह सामाजिक सम्बल भले ही आर्थिक नहीं होता लेकिन समाज को भावनात्मक ऊर्जा अवश्य ही प्रदान करता है। बताया जाता है कि कालान्तर में शनैः शनैः बीकानेर के वृहद पुष्करणा समाज में इस सामूहिक सावे के प्रति लोगों का रूझान बढ़ता गया। समाज के गणमान्य लोगो के मुताबिक लगभग 250 वर्ष के बीकानेर में यह सामूहिक सावा निर्बाध थरपा जा रहा है।
गौरवशाली है सामूहिक सावे की परम्परा
पुष्करणा सामूहिक सावे के दिन चूंकि विवाह का श्रेष्ठ मुहूर्त होता है इसलिये सैकड़ो पुष्करणा शादियों के साथ ही अन्य जातियों व समाजों कीभी सैकड़ो शादियां होती है। इसी वजह से उस दिन शहर की रौनक, माहौल एवं शहर के लोगो का आपसी सद्भाव देखने लायक होता है। सभी समाजों के लोग एक-दूसरे के विवाह समारोहांे में अपनत्व से शिरकत कर खुशियों का विस्तार देते हैं। पुष्करणा समाज की अनेक संस्थाएँ अपनी-अपनी तरह से सावे की लोकप्रियता को बढ़ाने के प्रयत्न बरसों से करती आ रही है। सावे में पुष्करणा समाज के व अन्य लोगा ‘बान या बनावे’ के रूप में डेढ़ सौ-दो सौ लिफाफे लेकर घर से निकलते हैं और प्रत्येक कन्या के यहाँ जाकर ‘बान’ भरते हैं। कुछ लोग प्रत्येक कन्या को साड़ी भेंट करते हैं। कुछ लोग बिना सामने आए वर-वधू वालों का यथोचित सहयोग करते हैं। कुछ लोग प्रत्येक जोड़े को यथा शक्ति सामूहिक रूप से उपहार देते हैं, तब ऐसा लगता है ििक यह एक शहर नहीं बल्कि एक बड़ा परिवार है, यही तो बीकानेर की लाइफ स्टाईल है। नमन हैहमारी परम्पराओं को, जो हमें एक दूसरे से भावनात्मक बंधन में बांधे रखती हैं। सरकार और प्रशासन को भी इन परम्पराओं के प्रोत्साहन में कुछ भूमिका निभानी ही चाहिये ।
रात-दिन का भेद भी नहीं रहता सावे में
बीकानेर में केवल पुष्करणा समाज ही नहीं बल्कि शहर मे एक परिवार की तरह रहने वाले सभी वर्गो के लागे पूरे दो साल तक पुष्करणा आॅलम्पिक सावे का व्यग्रता से प्रतीक्षा करते हैं। आखिर क्यो न करें, इस सावे के दौरान शहर मे कड़ाके ठण्ड के बावजूद रात और दिन का भेद मिट जाता है। पूरी-पूरी रात अंदरूनी शहर के चैको, मौहल्लो एवं गलियों की रौनक परवान पर होती है। परकोटे मे सैकड़ो घर रंग-बिरंगी रोशनी से सजे सावे के सौन्दर्य को चार चाँद लगाते हैं। रात भर सड़को पर वाहन दौड़ते रहते है। ‘ओ ना सूसी सा’ के आनन्दित करने वाले उद्घ् ाोष के साथ कहीं से ‘छींकी’ रवाना होती है तो कही पर पहुंचती है। शहर के प्रमुख चैक, मौहल्ले में पान की दूकानें सावे के अद्भूत वातावरण का रात भर दीदार करती है। अनेक चैको में बिछे प्राचीन व पारम्परिक पाटों पर गद्दे-तकिये एवं शामियाने लगाये जाते है। कई मौहल्लो में तीन-तीन दिन तक आगंतुको के लिये चाय, सुपारी, ईलायची की व्यवस्था रहती है। सावे के दिनों मे सैंकड़ो युवा बाइकों पर रात भर घूम-घूम कर सावे के अनूठे नजारों का आनन्द लेते है। ऐसा लगता है मानो ये एक शहर तो इस सावे में शरीक होता ही है साथ मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, रायपुर, बैंगलोर, जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर और अन्य दूरदराज के शहरों से सैंकड़ो लोग विवाह समारोहों में शामिल होने तथा हैं, बहुत सारे लोग केवल यह दुर्लभ नजारा देखने के लिये बीकानेर आते हैं। सामूहिक सावे के सन्दर्भ में कहा जाता है। कि इस दिन दूल्हों से भी ज्यादा खुशामद बारातियों की जाती है। सैकड़ों लोग तो ऐसे मिल जाते हैं जो सामूहिक सावे के दौरान 15-20 से भी अधिक विवाह समारोह अटैण्ड करते है। हालांकि शादियां होने की वजह से बारातों में अधिक लोग नहीं होते फिर भी शाम के समय तो कई बार जिधर देखे उधर से एक बारात आती दिखाई देती है, इससे कई बार तो शहर की गलियाँ में ‘जाम’ जैसी स्थिति बन जाती है।
 लगावण ने कूं कूं, बजावण ने पूं पूं
पुष्करणा समाज के आॅलम्पिक सावे की खासियतों को केवल सुनकर या पढ़कर नहीं समझा जा सकता, और अगर इसे ‘लाइव’ देखा जाए तो शायद हम इस असमंजस में पड़ सकते है। कि बात पर आश्चर्य करें और किस बात पर नहीं? दरअसल, इस दिन समाज में विवाह के कार्य और नेगचार युद्ध स्तर पर सम्पन्न किए जाते हैं। पुष्करणा युवा शक्ति मंच के प्रहलाद ओझा’’ भैरू बताते है। कि कई बार देखने में आता है कि ठीक सावे के दिन सुबह सगाई होती है, दिन भर में बाकी सारी भस्में और नेगचार किए जाते है और शाम के ‘बाद-बींदणी’क (वर-वधू) मंडप में फेरे लेते नजर आते है। ’भैरू’ बताते है कि सावे के दिन की इन स्थितियों ने ही चट मंगणी, पट ब्यावं की लोकोक्ति को जन्म दिया है। इसी तरह किसी जमाने में जब विवाह के लिए आज जितना धूम-धड़का और तामझाम नहीं होता था, केवल प्रतीकात्मक रूप से ही सारी रस्में पूरी कर ली जाती थी, सामान्ययता अधिकांश रस्मे केवल शंख की मंगल ध्वनि के साथ परिणय स्थल पर ले जाया जाता था। इसी वजह से आज भी लोग सावे में यह कहते नजर आते हैं कि ’म्हे तो छोरै रा ब्यांव सावे में ई करसौ, क्योंकि सावे में दो चीज्यो सूं ई ब्यांव हुय जावै, एक लगावन ने कूं-कूं अउ दूजी बजावण ने पूं पूं’।
सगाई से होती है एक सम्बन्ध की शुरूआत
लड़का व लड़की, दोनो पक्ष के लोग एक दूसरे की पर्याप्त पहचान कर, होने वाले सम्बन्ध से लड़का-लड़की के उज्ज्वल भविष्य के प्रति पूर्ण आश्वस्त होने के बाद सबको जबान देकर सम्बन्ध (रिशता) पक्का करते हैं। वधू पक्ष की ओर से वर पक्ष को यथा योग्य ‘मिलनी’ और श्रीफल एवं ‘प्रसाद’ (मिठाई) भेजकर सगाई की जाती है। सगाई की रस्म को ‘वाग्दान’ या मंगनी भी कहा जाता है। समाज में बहुत से लोग आदर्श उदाहरण को पेश करते हुए मिलनी में केवल एक रूपया और श्रीफल ही लेकर सगाई पक्की करते हैं। लड़के वाले की तरफ से भी वधू के लिए ‘खोला’ भेजा जाता है।
कूं कूं भरियो चैपड़ो, मोत्यो भरियो थाल
विवाह की तिथि तय होने पर ‘छोटा विनायक’ स्थापना के साथ वैवाहिक कार्यक्रमों का शुभारम्भ हो जाता है। ‘बड़ी व बाट’ करने के साथ शुभ दिन से विवाह के गीत आरम्भ किए जाते हैं। विवाह से तकरीबन दस-ग्यारह दिन परिवार, रिश्तेदारी और आस-पड़ौस की महिलाएं प्रतिदिन नियत समय पर एकत्रित होकर ‘बन्ना-बन्नी’ के मंगल गीत गाती हैं। इन मंगल गीतों का आगाज कुछ इस तरह से होता है।
कूं कूं भरियो चैपड़ो, मोत्यों भरियों थाल। बन्ने रा बाबोजी, गजानन्द ने ध्यावे, महोरा राज ।।
इसके बाद विवाह के नेगचार और अधिक गति तब पकड़ते हैं जब ‘विनायक स्थापना’ होती है। इसमें विवाह का ‘लगन’ लिखकर उसेवर पक्ष के यहां भेजा जाता है। वर पक्ष वाले इस ‘लगन’ को अपनी सहमति देकर वापिस भेज देते हैं। इसके अगले कार्यक्रम में सामान्यतयाविवाह से दो दिन पूर्व और कभी कभी एक दिन पूर्ण ‘गणेश स्थापना’ तथा वर-वधू के ’हाथधान’ की रसम की जाती है। आम बोलचाल में इसे
’हाथकाम’ भी कहा जाता है। हाथकाम के अंतर्गत वर या वधू को मंगल स्नान करवा कर पीठी लगाई जाती है। इसी दौरान अटाल, लखचक व विरद बड़ियों की भी रस्में होती है। गणेश स्थापना के साथ ही ’माँया बैठाना’’ यानि मातृका स्थापना भी होती है। कई लोग इस दिन ’मन्ना काजीमण’ करते है। बुजुर्गो के अनुसार य भोज ‘मातृका स्थापना’ का प्रसाद होता है।
 बीरा रमक-झमक होय आइजो…..सरदार भतीजा सागै लाईजो जी…..
भारतीय समाज में सभी रिश्तो की एक दूसरे के प्रति निश्च्छल संवेदनशीलता किसी से छुपी नहीं है। हिन्दू विवाह पद्धति में वर-वधू के ननिहाल पक्ष की ओर से भरा जाने वाला ‘मायरा’ या ‘भात’ भी पारिवारिक सम्बन्धों के प्रति हमारी गहरी व निःस्वार्थ निष्ठा का ही एक उदाहरण है। दरअसल परिवार की कोई बेटी जब अपने बच्चो का घर बसाने के लिए उनका विवाह करती है। तो उसके माता-पिता, भाई – भाभी या पीहर वाले अपनी बेटी या बहन को अपनी ओर से गहनो, साड़ियों वस्त्रो और अन्य मांगलिक सामग्री का सहयोग करते हैं ताकि वह अपने बेटे-बेटी का विवाह धूमधाम से कर सकें। इस रस्म को आम भाषा मे मायरा कहते है। यह बड़ा प्रमाण है। हमारे यहाॅ मायरे में वधू का मामा अन्य सामग्री से साथ वधू के लिए चूड़ा व चूनड़ी (मामा चूनड़ी) लाता है। लड़की इसी चूनड़ी को पहन कर फेरे लेती है। मायरे में भी ननिहाल की ओर से वर-वधू का खोला आटे के साथ फलों से भरा जाता है। आटे के इन फलो को ‘तोडर फल’ कहते हैं। चूंकि मायरा भाई की अगुवाई में आता हैं, तो बहने प्रसन्न होकर अपने भाई को मायरे में सपरिवार इस प्रकार बुलाती है…
एक महत्वपूर्ण रस्म है ‘खिरोड़’
विवाह के सभी नेगचारो में पाणिग्रहण संस्कार के बाद जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण रस्म है, वह है ‘खिरोड़ा’। इसमे वधू का पिता अपने परिवार व निकट संबन्धियो को साथ बींद के घर जाता है। घर के आंगन मे दोनो पक्षो के छोटे-बड़े सभी लोग एक जाजम पर बैठते हैं। यहां दोनो पक्षों के विद्वान पण्डित ऊँचे स्वरों में गोत्राचार पढ़ते हैं। गोत्राचार में वर – वधू के केल, गोत्र, ऋषिगोत्र, जाति, पड़दादा, दादा और पिता के नाम उद्घ् ाोषणा होती है। कुछ लोग इसे दोनों परिवारों का गहन परिचय बताते हैं। तो कुछ जानकार लोग बताते हैं। कि यह वर व वधू के परिवार और उनकी पहचान का ’फाइनल कन्फरमेशन होता है । साथ ही इसमे नये होने वाले सम्बन्ध की भी घोषणा हो जाती है। गोत्राचार के अनेक धार्मिक व सामाजिक महत्व भी हैं, इसलिए गोत्राचार सुनना शुभ माना जाता हैं। ‘खिरोडे़’ मे वर के लिए वस्त्र के साथ गृहस्थी का लगभग सारा सामान एवं बर्तन आदि दिए जाते हैं। पुराने लोग यह सामान देने का उदेश्य बताते हैं कि ’चूंकि वर व वधू गृहस्थ्या जीवन में प्रवेश करते हैं इसलिए लड़की पिता उन्हे इस रूप में घर बसाने में सहयोग करता है।
राजा की आएगी बारात, रंगीली होगी
खिरोड़ा और अंजरी पूजा के बाद वर के यहां बारात प्रस्थान की और वधू के यहां बारात स्वागत की तैयारियां परवान पर होती है। पुष्करणा ब्राह्मण समाज में बींद परम्परिक ‘विष्ण वेश’ मे पैदल ही जाता है। आजकल आधुनिकता के प्रभाव से सूट-बूट या अचकन, शेरवानी, साफे मे घ्ोड़ी अथवा रथ पर जाने वाले बींद भी पर्याप्त संख्या मे देखे जा सकते हैं। घोड़ी में जाने पर पण्डित जी द्वारा घोड़ी की पूजा की जाती है। उसे दाल खिलाई जाती है। फिर बींद गाजे-बाजे से इन मंगल गीतो के साथ घर की लक्ष्मी को लाने के लिए रवाना होता है। …..
केसरियो लाडो जीवतो रे रे, ओ तो जीवतो जीवतो ढोले जागो। पियारे ढोला य म्हारे फलाणचंद जी (बींद का नाम) रो बाप… केसरियो लाडो जीवतो रे रे….

किसी जामने मे शंख, मंजीरे व शहनाई की मंगल ध्वनि में, फिर बैण्ड बाजा व ताशे और अब कुछ जगह डी.जे. के धूम-धड़ाके के साथ नाचते, गाते व आतिशबाजी करते हुए बारात अपने गंतव्य पर पहुँचती हैं । विवाह स्थल पहुँचने पर सास द्वारा बींद को ‘पोखा’ जाता है। इस प्रक्रिया में सास अपने पल्ले से, बेलन, बैल्ट आदि से बींद का शारीरिक परीक्षण करती है। कहीं कहीं सिक्के को दही मे भिगोकर कुछ क्षणों के लिए बींद के मस्तक पर लगाया जाता है। यह बींद की त्वचा की जाँच होती है। तोरण मारने व वहां की सारी रस्में होने के बाद सास द्वारा बींद की नाकपकड़कर उसे भीतर प्रवेश करवाया जाता है। इसमें बींद के श्वसन तंत्र के परीक्षण का भावनिहीत होता है। पुराने समय मे जब बारात तोरण द्वारा आती थी तब वधू पक्ष का सबसे बुजुर्ग या प्रमुख व्यक्ति एक बड़ी कड़छी (चम्मच) में जलते हुए कोयले पर हींग रखकर ‘हींग का धुआँ छेता था। बुजुर्गो कु अनुसार इसके पीछे बारातियों की सुरक्षा का भाव निहीत होता था । क्योंकि उस समय माना जाता था कि बाराती सजधन कर, इत्र, सैन्ट आदि लगाकर विभिन्न मार्गो से होते हुए वहां आए हैं, यदि उनके साथ कोई ‘ऊपरी’ हवा आ गई हो तो वह हींग की तीव्र गंध के कारण विवाह स्थल में प्रविष्ट नहीं हो पायेगी। पुष्करणा समाज में बारात के स्वागत में जो भोज दिया जाता है उसे ‘जान’ कहते हैं। किसी जमाने में समाज में गुड्डी (कुंवारी) जान, कलशा जान, परणोतर जान और ननिहाल पक्ष की जान को मिलाकर चार जाने हुआ करती थी। लेकिन अब केवल एक ही जान (जीमण) का प्रचलन है, वह भी अब’बंफर’ (खडे़-खडे़ खाना) में तब्दील हो गया हैं। गुड्डी या कँुवारी जान मे गवरजा (पार्वती) माता की पूजा कर उनका आहवान् किया जाता है। गुड्डी जान कथा व आल-थाल के बाद भोजन प्रारम्भ होता था । जान का स्वागत करते हुए यह भी बोला जाता था…… आवो जोड़ सजोड़ा जानी, बीन तणी छवि हुय बखाणी। , बहुत ग्वाल बिच कुँवर कन्हाई, बणी जान जब द्वारे आई।
तुम संग जनम-जनम के फेरे….
विद्वान पंडितो द्वारा वैदिक मंत्रोचारों एवं पूर्ण विधि-विधान से यज्ञ रूपी अग्नि देव की साक्षी में ‘हथलेवा’ व गठजोड़ आदि के साथ पाणिग्रहण संस्कार होता है। यजुर्वेद के मंत्र ‘ऊँ आशुः शिशानो…’ के साथ वर-वधू चार फेरे लेते हैं। धान की सात ढिगलियों को पैरो से सरकाकर वर-वधू सात वचनों को स्वीकार बाद साड़ी ओढ़ाते हैं। वर-वधू परस्पर स्थान परिवर्तन करते हैं। 4 फेरे होने के बाद वधू वर के वाम अंग में विराजती है। वर,वधू की माँग में सिन्दूर भरता है। वधू की ’मुँह दिखाई’ की रस्म होती है। पूरे पण्डाल में बधाइयों का आदान-प्रदान होने लगता है।
 मेहन्दी मोली एवं कमला कल कलन्ती आई
विवाह संसकार सम्पन्न होने पर वर पक्ष के लोग नव वधू के लिए ‘बरी’ लेकर आते हैं। इस दौरान महिलाएं के स्वर उभरते हैं।
‘मेहन्दी मोली लाव जावत्री, केशर पुड़ा बंधवो ऐ…. जाॅन्यो में…. बरी में वधू के लिए आभूषण, वस्त्र, मेकअप सामान आदि होते हैं कहा जाता है कि वधू को लक्ष्मी स्वरूप मानकर उसे ससुराल के वस्त्र-गहने पहनाए जाते है और अपने घर यानी ससुराल ले जाया जाता है। इधर जेसे ही विवाह की सारी प्रक्रिया के बाद लड़की की ‘विदाई’ होती है वैसे ही कन्या सहित उसके माता-पिता भाई-बहन व अन्य रिश्तेदारो, सहेलियों का प्रेम, प्यार, वात्सल्य विछोह की इस घड़ी में आँसू बनकर बहने लगता है। कुछ समय के लिए वहां का वातावरण अत्यन्त गंभीर हो जाता है। वर-वधू कन्या पक्ष के बड़े लोगों का चरण स्पर्श कर अपने घर रवाना हो जाते है। रास्ते में वर पक्ष के लोग मदन्दों ‘गीत गाते है। नव वधू का परिवार की रीति-रिवाज के साथ बृह प्रवेश कराया जाता है। परिवार का बुजुर्ग मुखिया बींदणी को प्रतीकात्मक रूप से गोद में बैठाकर गोथली में हाथ डलवाते हैं अर्थात नव वधू रूपी गृहलक्ष्मी को घर की ‘लक्ष्मी’ सौंप दी जाती है। नई बींदणी का स्वागत करते हुए महिलाएँ गाती हैं….कमला आई, कमला आई, मला कैल कलन्ती आई। रूकमण संग रमन्ती आई ।।

 

 सामूहिक सावे को लोकप्रिय बनाने का उद्देश्य
सामाजिक कार्यकर्ता प्रहलाद औझा ‘भैरू’’ वर्ष 2000 से अपनी संस्था ‘पुष्करणा युवा शक्ति मंच’ के माध्यम से पुष्करणा सामूहिक सावा को लोकप्रिय बनाने की मुहिम में जुटे हुए है। उनकी संस्था प्रत्ये सामूहिक सावे में समय व मुहूर्त की पालना करने वाले परम्परागत विष्णु वेश घारी दुल्हो को पुरस्कृत करती है। संस्था के राधेकृष्ण ओझा बताते है। कि प्रथम तीन दुल्हों को सपत्निक यात्रा पैकेज, अगले दस दुल्हो को आकर्षक उपहार, दुल्हनों को आर्टिफिशियल ज्वैलरी, होअल में कपल डिनर, चाँदी के सिक्के, स्मृति चिन्ह्, मैंडल, सम्मान पत्र व श्रीनाथ जी का ऊपरना आदि सामग्री देकर सम्मानित किया जाता है। संस्था दुल्हन के परिवार को खीरोड़ा की कुछ सामग्री जैस गुड़-भेली, मिश्री कुंजा, बड़ पापड़ निःशुल्क उपलब्ध करवाती है। संस्था द्वारा सावे के दौरान तीन दिन तक बारह गवाड़ चैक में साफा व खिड़किया पाग बांधने की सुविधा उपलब्ध रहती है। पं. छोटूलाल औझा के मार्गदर्शन में संस्था यज्ञोपवित के लिए पाटी, गेडिया, बटुआ, पंजियां व गणेश पूजा सामग्री निःशुल्क उपलब्ध करवाती है। संस्था द्वारा सावे के तीन दिन तक बारातियों के लिए निःशुल्क चाय सेवा निरंतर चालु रहती हैं। साथ ही मेन्हदी व रंगोली टीम भी अपनी सेवाएँ देती है।

टिप्पणियाँ