दुष्टों का दमन करने वाले : नृसिंह भगवान

वैष्णव पत्रिका:- हमारे शास्त्र एवं पुराण प्रभु की महिमा से भरे पड़े है जिनमें लिखा है कि भगवान सदा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा करने और हिरण्यकशिपु के आतंक को समाप्त करने के लिए भगवान ने श्री नृसिंह अवतार लिया। जिस दिन भगवान धरती पर अवतरित हुए उस दिन वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी थी इसी कारण यह दिन नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है। बहुत से भक्त इस दिन उपवास भी करते है। शास्त्रों के अनुसार श्री नृसिंह को भगवान विष्णु जी का अवतार माना जाता है। इनका आधा शरीर नर तथा आधा शरीर सिंह के समान है तथा व्रत में भगवान विष्णु को नृसिंह अवतार के रूप में ही पूजा जाता हैं।
इस दिन प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठ कर स्नानादि क्रियाओं से निपटकर भगवान विष्णु ने वैध, पुष्प एवं फलों से पूजा एवं अर्चना करते हुए विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें तथा सूर्य देवता को तांबे के पात्र में जल भर कर व्रत रखने के लिए इस मंत्र का उच्चारण करते हुए निवेदन करें।
”ओम विष्णु: विष्णु: विष्णु:- नृसिंह देवदेवेश तव जन्मदिने शुभेउपवास करिष्यामी सर्वभोगविवर्जित:
इस व्रत में जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिए और सांयकाल को भगवान नृसिंह जी का दूध, दही,गंगाजल, चीनी के साथ ही गाय के मक्खन अथवा घी आदि से अभिषेक करने के पश्चात चरणामृत लेकर फलाहार करना चाहिए। निर्णयसिंधु के अनुसार इस व्रत की तिथि सूर्यास्तकाल व्यापिनी ही लेनी चाहिए क्योंकि भगवान का अवतार संध्या काल में हुआ था।
व्रत का पुण्यफल- व्रत के प्रभाव से जहां जीव की सभी कामनाओं की पूर्ति हो जाती है वहीं मनुष्य का तेज और शक्तिबल भी बढ़ता है तथा जीव को प्रभु की भक्ति भी सहज ही प्राप्त हो जाती है। शत्रुओं पर विजय पाने के लिए यह व्रत करना अति उत्तम फलदायक है। इस दिन जए एवं तप करने से जीव को विशेष फल प्राप्त होता है।
क्यों मनाई जाती है नृसिंह जयंती- पद्मपुराण के अनुसार दिति और ऋषि कश्यप जी के दो पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष हुए। ये दोनों बड़े बलशाली एवं पराक्रमी तथा सभी दैत्यों के स्वामी थे। हिरण्याक्ष को अपने बल पर बढ़ा अभिमान था क्योंकि उसके शरीर का कोई निश्चित मापदंड नहीं था। उसने अपनी हजारों भुजाओं से समस्त पर्वत, समुद्र, द्वीप तथा प्राणियों सहित सारी पृथ्वी को उखाड़ कर सिर पर रख लिया तथा रसातल में चला गया जिससे सभी देवता भयभीत होकर त्राहि-त्राहि करते हुए भगवान नारायण की शरण में गए। भगवान ने तब वराह रूप में अवतार लेकर हिरण्याक्ष को कुचल दिया जिससे वह मारा गया तथा भगवान ने धरती को पुन: शेषनाग की पीठ पर स्थापित करके सभी को अभयदान दिया।
अपने भाई की मृत्यु से दुखी हुए हिरण्यकशिपु ने मेरूपर्वत पर जाकर घोर तपस्या की तथा सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा जी से वरदान मांगा कि उसे सारी सृष्टि का कोई मनुष्य अथवा पशु मार ही न सके, वह न दिन में मरें तथा न ही रात को, वह न किसी छत के नीचे मरे तथा न ही खुले आकाश में तथा न ही धरती पर मरें, न ही किसी वस्तु पर गिरकर, कोई अस्त्र उसे काट न सके तथा आग उसे जला न सकें। यहां तक कि साल में १२ महिनों में से किसी भी महीने में न मर पाए।
ऐसा वरदान पाकर हिरण्यकशिपु स्वयं को अमर मान कर अधिक अहंकार में आ गया और स्वयं को भगवान कहने लगा। दैत्य हिरण्यकशिपु के घर प्रहलाद का जन्म हुआ। वह बालक भगवान विष्णु के प्रति भक्ति भाव रखता था जो हिरण्यकशिपु को बिल्कुल पसंद नहीं था। उसने अनेकों बार पुत्र को समझाया कि वह भगवान विष्णु की नहीं बल्कि उसकी पूजा करें। उसने प्रहलाद को बहुत समझाया परंतु जब वह न माना तो उसने प्रहलाद को मारने के अनेक असफल प्रयास और अंतत: अंतिम प्रयास के रूप में जब प्रहलाद के वध का प्रयास किया तो भक्त प्रहलाद ने नारायण को पुकारा जिस पर ब्रह्मा जी के लिए हुए वचन को पूरा करने के लिए भगवान विष्णु खम्बे में से नृसिंह अवतार लेकर प्रकट हो गए। वह हिरण्यकशिपु को उठा कर घर की दहलीज पर ले आए। उन्होंने उसे अपनी गोद में लिटा लिया तथा शेर मुख तथा पंजों के नाखूनों से चीर कर उसे मार दिया। उसे दिए वचन को पूरा करते हुए भगवान ने कहा कि ‘इस समय न दिन है न रात अर्थात संध्या का समय है, न मैं नर हूं न पशु, अर्थात आधा शरीर पशु तथा आधा मनुष्य का है तभी उनका नाम नृसिंह पड़ा। साल के बारह महीनों में से किसी भी महीने न मरने का वचन लेने वाले हिरण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान ने पुरूषोत्तम अर्थात अधिक मास बनाया। भगवान ने नृसिंह अवतार लेकर दुष्ट, पापी एवं अहंकारी हिरण्यकशिपु को मार कर अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा की। सभी ने मिलकर प्रभु की स्तुति की तथा भगवान ने नृसिंह रूप में ही सभी को आशीर्वाद दिया।

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