धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए संकल्पित है धर्मयात्रा : जेठानंद व्यास

वैष्णव पत्रिका :- जिस जाति को अपनी संस्कृति, अपने पूर्वज, अपने आचार-विचार अपनी वेष-भूषा अपने खान पान और अपनी परम्परा गत निर्दोष पद्धतियों के प्रति हीनता की भावना, उपेक्षा-बुद्धि दोषबुद्धि और त्याज्यबुद्धि हो जाती है और ‘पराया’ सब कुछ अच्छा, उच्च, गुणयुक्त और ग्रहण करने योग्य प्रतीत होने लगता है, वह जाति जीवित नहीं रहती। बाहरी-विदेशी प्रबल आक्रमणकारी देश पर विजय प्राप्त कर सकते हैं पर हमारे स्वरूप संस्कृति की जड़ खोदने लगते हैं-हम ही अपने स्वरूप का त्याग करने में गौरव मानने लगते हैं तब तो हमारी हार ही नहीं मृत्यु ही हो जातीा हैं। बड़े खेद की बात है कि तप: पूत ज्ञान विज्ञान सम्पन्न त्यागी ऋषि-मुनियों कें इस पावन देश में आज अन्धाधुन्ध यही हो रहा है! हमारे आचार विचार, हमारे शिक्षालय, हमारे धर्मस्थान, हमारे स्त्री-पुरूषों के आचार, हमारी भाषा, हमारी वेश-भुषा, हमारे खान-पान, हमारे घर-मकान, हमारे भोजनालय, हमारे शयनागार, हमारे परस्पर के मिलन-प्रसंग, हमारे पत्र-लेखन, हमारी बोल-चाल, हमारी कार्यप्रद्धति- सभी में अपने प्रति उपेक्षा, धृणा तथा हीनता की भावना और अन्धे होकर पराया अनुकरण करने की प्रवृति प्रबल आँधी की तरह इस प्रकार बढ़ रहीं हे कि वह हमारी जड़ उखाडऩे पर उतारू है। भारतीय संस्कृति सत्यपर आधारित है और सत्य कभी मरता नहीं, इसलिये यह संस्कृति मरेगी तो नहीं-इसका मूलनाश तो कभी नहीं होगा, पर इसका जो गौरवमय स्थान आज मलिन होने जा रहा है और अपने ही हाथों, यह विनाशोन्मुखी प्रवृति अवश्य कलडकी बात की ! स्त्रियॉ मातृत्व और सतीत्व का त्याग करके केवल वासना की सामग्री जिस जाति को अपनी संस्कृति, अपने पूर्वज, अपने आचार-विचार अपनी वेष-भूषा अपने खान पान और अपनी परम्परा गत निर्दोष पद्धतियों के प्रति हीनता की भावना, उपेक्षा-बुद्धि दोषबुद्धि और त्याज्यबुद्धि हो जाती है और ‘पराया’ सब कुछ अच्छा, उच्च, गुणयुक्त और ग्रहण करने योग्य प्रतीत होने लगता है, वह जाति जीवित नहीं रहती। बाहरी-विदेशी प्रबल आक्रमणकारी देश पर विजय प्राप्त कर सकते हैं पर हमारे स्वरूप संस्कृति की जड़ खोदने लगते हैं-हम ही अपने स्वरूप का त्याग करने में गौरव मानने लगते हैं तब तो हमारी हार ही नहीं मृत्यु ही हो जातीा हैं। बड़े खेद की बात है कि तप: पूत ज्ञान विज्ञान सम्पन्न त्यागी ऋषि-मुनियों कें इस पावन देश में आज अन्धाधुन्ध यही हो रहा है! हमारे आचार विचार, हमारे शिक्षालय, हमारे धर्मस्थान, हमारे स्त्री-पुरूषों के आचार, हमारी भाषा, हमारी वेश-भुषा, हमारे खान-पान, हमारे घर-मकान, हमारे भोजनालय, हमारे शयनागार, हमारे परस्पर के मिलन-प्रसंग, हमारे पत्र-लेखन, हमारी बोल-चाल, हमारी कार्यप्रद्धति- सभी में अपने प्रति उपेक्षा, धृणा तथा हीनता की भावना और अन्धे होकर पराया अनुकरण करने की प्रवृति प्रबल आँधी की तरह इस प्रकार बढ़ रहीं हे कि वह हमारी जड़ उखाडऩे पर उतारू है। भारतीय संस्कृति सत्यपर आधारित है और सत्य कभी मरता नहीं, इसलिये यह संस्कृति मरेगी तो नहीं-इसका मूलनाश तो कभी नहीं होगा, पर इसका जो गौरवमय स्थान आज मलिन होने जा रहा है और अपने ही हाथों, यह विनाशोन्मुखी प्रवृति अवश्य कलडकी बात की ! स्त्रियॉ मातृत्व और सतीत्व का त्याग करके केवल वासना की सामग्री (भारत के प्रति) हद्य में सहानुभूति लिये हुए (विदेशी) दर्शक भारतीयों में इस परिवर्तन को देखकर केवल दु:खी होता है और सोचने लगता है कि पता नहीं, अन्ततक ये भारतीय अपने कितने और सांस्कृतिक आचार-विचारों एवं प्रतीकों का बलिदान कर देंगे ! ये हैं भारत के प्रति सहानुभूति रखने वाले एक विदेशी सज्जन उद्गार ! वास्तव में हमारे अपने प्रति हमारी अनास्था और नीच भावना हो गयी है और हम हर बात मे अपनी ची को स्वीकार करने में लजाते है; इसीलिए हिंदू कहलाने में, धोती-कुर्ता पहनकर बाहर निकलने में, धर्म का पालक  करने वाले कहलाने में, माता-पिता के भक्त तथा आचार निष्ठ कहनाने में हमे लज्जा बोध होने लगा है। यह बड़ी ही शोचनीय परिस्थिति है। ऋषि मुनियों की वर्णाश्रम-प्रणाली ने भारतीया को बचाया था; पर आज उसके प्रति धोर अनास्था होने लगी हैं। देश के राजनेताओं, समाजसेवकों और मनीषियों को इस पर गभ्भीरता से विचार करना चाहिए।
धर्म की संगत में ही जीवन यापन करना मनुष्य जीवन का कर्म हैं। धर्म रक्षा के लिए अपना तन, मन और धन सात्विक प्रवृति से खर्च करना और आम जन-जीवन में धर्म के प्रति बढ़ती अवचेतनता को चेतनता में परिवर्तित करना ही सच्ची देश भक्ति हैं। देशभक्ति सिर्फ यह नहीं कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर हम तिरंगा लहराकर और मौसमी रूप से देशभक्ति गीत सुनकर साल में दो बार भारत के लिए औपचारिकता प्रेषित करें बल्कि देश की धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए संकल्पित होना ही सच्ची देश सेवा हैं और ऐसी ही छवि से ओत-प्रोत हैं हिन्दू जागरण मंच के संयोजक जेठानंद व्यास। जेठानंद व्यास से जब वैष्णव पत्रिका ने खास मुलाकात की तो जीवन के कई पहलुओं पर व्यास अद्भुत नजर आयें। व्यास 40 वर्ष से संघ  परिवार से जुड़े हैं और पूर्ण रूप से संध समर्पित विचारों के वातावरण में स्वयं को जीवंत रखते हैं। व्यास मानते हैं कि हिन्दू अपने धर्म और संस्कृति को लेकर विकृत होते जा रहे हैं ऐसे में अब हिन्दू जागृति को लेकर भारत में आयोजन होने चाहिये। हिन्दू जागरण मंच के माध्यम से व्यास ने एक नई धर्म जागृति मुहिम का आगाज पिछले वर्ष कर दिया था और इस वर्ष भी यह सनातन प्रचार जन साधारण में किया जा रहा हैं। 28 मार्च 2017 को होने वाली इस धर्मयात्रा में सिर्फ बीकानेर शहर ही नहीं बल्कि आस-पास के सभी गांवों को भी धर्मयात्रा में सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा जा रहा हैं करीब 25 किलोमीटर की दूरी तक के गांवों को धर्म संदेश भेजा जा रहा हैं और इस यात्रा में 50 हजार से 1 लाख लोगों के आने की संभावना बताई जा रही हैं। वर्ष में एक बार सभी हिन्दू एक मंच पर आयें जिससे हिन्दू विरोधी संगठन कमजोर हो। हिन्दू जागरण मंच का लक्ष्य हर घर  से एक हिन्दू यात्रा में शामिल हो ऐसा माना जा रहा हैं। दबंग और कट्टर हिन्दू व्यास अपने जीवन का प्रेरक संतोष हर्ष को बताते हैं जो कि इन्हें पहली बार संघ की शाखा में लेकर गये थे और आज भी उनका सानिध्य इन्हें प्राप्त हैं। एक मध्यम परिवार में जन्में जेठानंद हर व्यक्ति से अभिवादन स्वरूप मिलते हैं और उनके संवाद का विषय मुख्यत देश सेवा ही रहता हैं। आने वाली हिन्दू धर्मयात्रा सफल और सकारात्मक रहें ऐसी वैष्णव पत्रिका परिवार मंगलकामना करता हैं। शुभम् भवति।

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