मारवाड़ के गौरव का प्रतीक- गवरजा माता

गणगौर पर्व पौराणिक के साथ-साथ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं लोक आस्था का पावन प्रतीक एवं सामाजिकता, आध्यात्मिकता व मानव मनोविज्ञान की पावन त्रिवेणी है । परम्परागत रूप से अनूठी लोक संस्कृति के धनी राजस्थान का सर्वाधिक रस व उल्हास पूर्ण पर्व गणागौर है । राजस्थानी जहां कही भी रहते है वे वहां यह पर्व लोक मन की पावनता, सदाशयता, सहजता का परम पुनीत स्वरूप लिए हुए समग्र रूप से गतिमान है ।
राजस्थान के हर कोने में इस उत्सव का अति गरिमामय स्वरूप देखने को मिलता है परन्तु जहां तक बीकानेर का प्रश्न है वहां तो गणगौर धर्म से अनेक गुणा अधिक, विजय एवं संस्कृति का प्रतीक है जो राज्य का ही नहीं सर्व साधारण का अति विशिष्ट उत्सव है । जहां भी बीकानेरी रहते है, उनका यह प्रयास रहता है कि अपने उद्गम स्थान की तरह ही वहां भी बिना किसी जाति, धर्म व मान्यताओं का भेद किए उत्सव को अदभ्य उत्साह से सम्पन्न करें और अन्यान्य व्यक्तियों के समूहों को भी सहभागी बनाकर अपनी सांस्कृतिक धरोहर के साथ जोड़ते हुए सामूहिक आनन्द को अभिव्यक्त करें । बीकानेर राजघरानें की गवर बीकाजी ने अपने पिता राव जोधाजी का नया राज बसाने की आज्ञा शिरोधार्य कर अपने शुभ चिन्तकों के साथ मारवाड़ की राजधानी जोधपुर से प्रस्थान किया । लगभग २३ वर्ष तक निरंतर संघर्ष रत रहकर परम पूज्य करणी माता के आशीर्वाद के फलस्वरूप वे बीकाणा राज्य की स्थापना करने में सफल हुए । नवस्थापित राज्य के शुभ अवसर पर राव बीकाजी ने अपने पिता राव जोधाजी की आज्ञानुसार जोधपुर का राज्य अपने भाई सुजाजी को दे दिया। जिसके बदले में जोधाजी ने मारवाड़ राज्य के राजचिन्हों को देने का आश्वासन दिया । किन्तु जोधाजी की आकास्मिक मुत्यु हो गई । जोधपुर के नये राजा बने सुजाजी ने राज चिन्हों को देने से मना कर दिया जिसके कारण बीकाजी ने जोधपुर पर चढ़ाई कर दी जिसमें बीकाजी कई राज चिन्हों को बीकानेर लाने में सफल हुए ।
बीकानेर राज्य की गवरजा माता की मुर्ति भी उन्ही राज चिन्हों में से एक है । जिसे बीकानेर में प्रवेश करने वाला जाब़ाज सैनिक भादाणी था । इसकी याद में आज भी बीकानेर नगर के चौतीना कुआं पर होने वाले गवरजा के मेले में भादाणियों की पंचायती की गणगौर सबसे आगे विराजती है और मेले के समापना प्रकिया का आरम्भ राज की गवरजा के चौतीणा पहुंचने के साथ-साथ वहां से भादाणियों की गणगौर को युवा भादाणी दौड़ लगाकर कोट दरवाजें पर ठहरता है । जिसें ‘गणगौर दौड़  भी कहा जाता है । जगह-जगह पर गणगौर के गीत लोककण्ठ से मधुर रागिनी में गाये जाते है तथा गली, गुवाड़ व चौकों में सुरीले गीतों की स्वर लहरी सांस्कृतिक परम्परा को जीवंत करती है । इसके अलावा गणगौर पर्व, गणगौर मेला चौतीणा कुआं, नत्थुसर बास, जस्सुसर गेट, ढढ्डा़े का चौक , श्रीरामसर, सुजानदेसर आदि कई स्थानों पर मनाया जाता है ।
चांदमल ढढ्ढो की गवरजा
कई वर्षो पहले बीकानेर के सुप्रसिद्ध सेठ उदयमलजी ढढ्ढा थे जिकी बड़ी आयु होनेतक कोई संतान नहीं थी । उस समय लोगों की सलाहनुसार सेठ उदयमल जी ने गणगौर के पावन दिवस पर गवर, ईसर व भाईये सहित गणगौर पूजन किया और पुत्र प्राप्ती की मन्नत मांगी । गणागौर माता की कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हूई जिसका नाम ‘चांदमलÓ रखा । तभी से बीकानेर शहर में ढढ्ढ़ो के चौक में नख शिख तक बेश किमती गहनों से लदी गवरजा का मेला सेठ चांदमल जी की हवेली के आगे लगता है । ढढ़्ढो की गवरजा कभी चौतीणा नही जाती ऐसी मान्यता है ।
आलूजी छंगाणी की गणगौर
बीकानेर नगर के ह्दय स्थल बारहगुवाड़ चौक में , जहां कभी बारह जातियां एकत्र बसा करती थी। आलूजी छंगाणी की गणगौर भी लोकप्रसिद्ध है । गोंद, मैथी, मिट्टी से निर्मित ये गणगौर, ईसर व गणेश लगभग दो सौ वर्ष पुराने है । बारह गुवाड़ चौक पर गणगौर उत्सव पर अनेक कार्यक्रम आयोजित होते है जिसमें जगह-जगह होने वाले गणगौर गीत सराहनीय है ।
कैसे होता है गणगौर पूजन
गणगौर में कन्याएं सोलह दिन तक सुबह माँ गणगौर का पूजन करती है और शीतला अष्टमी के दिन से शाम को गणगौर को जल पिलाती हैं । तीज को उपवास रखती है । उपवास के पहले दिन सिंधारे होते है । गणगौर की पूजा में सोलह दिनों तक मान्डनां माँड कर पालसिया में ईश्वर, गवरजा के स्वरूप की अबीर,गुलाल से पूजा करते है । जँवारा भी अष्टमी वाले दिन बोते है । जँवारे को ईशर जी का रूप मानते है । ऐसी मान्यता है कि ईशर जी अष्टमी को अपने ससुराल आते है और तीज वाले दिन व्रत करने के बाद गवजा को अपने साथ वापिस ले जाते है । इसी परम्परा को मानते हुए गणगौर को पधारनें , भोलाने व विदाई देते जाते है ।
साभार:- मनमोहन रास मण्डल, मुम्बई

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