शिवरात्रि विशेष : एक लुटेरे की शिवभक्ति

एक लुटेरे की शिवभक्ति

मैसूर से लगभग 16 किमी दूर, नंजनगुड के नाम से प्रसिद्ध जगह की बाहरी सीमा पर एक शिव-भक्त रहता था। उसका नाम मल्ला था। वह किसी धार्मिक परंपरा से नहीं जुड़ा था और पूजा, ध्यान के नियम नहीं जानता था। लेकिन बचपन से ही आँखें बंद करने पर उसे सिर्फ शिव दिखते थे। शायद उनके लिये भक्त एक ठीक शब्द नहीं है। उनके जैसे लाखों लोग हैं जो एक तरह से शिव के बंदी हैं, उनके पास कोई और चारा ही नहीं है। शायद मैं भी उनके जाल में फंस गया। हम उनकी खोज नहीं कर रहे थे – हम ऐसे घमंडी थे कि कोई खोज कर ही नहीं सकते थे — लेकिन उनके फंदे में फंस गए थे। शिव एक शिकारी थे। वे न सिर्फ जानवरों को फांसते थे बल्कि मनुष्यों पर भी फंदा डालते थे। मल्ला भी ऐसे ही थे।

मल्ला को शिव के सिवा और कुछ भी नहीं पता था और वे जंगल में बड़े हुए और उन्होंने कोई ख़ास कारोबार या किसी कला को नहीं सीखा था। किसी को रोक लेना और उससे ज़रूरत की सभी चीज़ें छीन लेना, उन्हें गलत नहीं लगता था। तो वे यही करते थे और एक लुटेरे के रूप में प्रसिद्ध हो गये।

फिर दो योगी, जो भाई थे, वहां आये और उन्होंने इस आदमी को देखा जो एक लुटेरा था और साथ ही महान शिवभक्त भी। वे उनसे बोले, “आप की भक्ति महान है, लेकिन आप जो कर रहे हैं, उससे लोगों को तकलीफ होती है”।
मल्ला की महासमाधी
जंगल के उस मार्ग पर जहाँ से लोग आते-जाते थे, वे एक नियमित लुटेरे बन गये। वह स्थान जहाँ वे लूटमार करते थे, ‘कल्लनमूलई’ के नाम से जाना जाने लगा, जिसका अर्थ है ‘चोर का अड्डा’। पहले तो लोगों ने उन्हें बुरा-भला कहा, लेकिन जब साल का अंत आया तो लूटा हुआ सारा धन उसने महाशिवरात्रि का उत्सव मनाने पर खर्च कर दिया। उसने लोगों के लिये एक बहुत बड़ा भोजन समारोह भी रखा। तो कुछ सालों बाद लोगों ने उन्हें एक महान भक्त मान लिया और अपने आप में उन्हें दान देने लगे। हाँ, जो लोग कुछ न देते, उनसे लूटमार करने में उन्हें कुछ गलत नहीं लगता था।

फिर दो योगी, जो भाई थे, वहां आये और उन्होंने इस आदमी को देखा जो एक लुटेरा था और साथ ही महान शिवभक्त भी। वे उनसे बोले, “आप की भक्ति महान है, लेकिन आप जो कर रहे हैं, उससे लोगों को तकलीफ होती है”। उन्होंने जवाब दिया, ” मैं यह सब शिव के लिये कर रहा हूँ, तो इसमें समस्या क्या है?” तब उन योगियों ने मल्ला को ठीक से समझाया, उन्हें अलग बैठाया और उन्हें कुछ व्यवस्था की बातें सिखायीं। उन्होंने उस जगह का नाम कल्लनमूलई से बदल कर मल्लनमूलई रख दिया। आज भी वह जगह मल्लनमूलई के नाम से जानी जाती है। वहां उन्होंने महाशिवरात्रि का जो उत्सव शुरू किया, वह अब उस स्थान की एक बड़ी परंपरा बन गया है।

योगियों के साथ बैठने और लूटमार छोड़ देने के डेढ़ साल के अंदर ही मल्ला को महासमाधी प्राप्त हो गयी। इस तरह से उन्हें मुक्त कराने के बाद, उन योगियों ने उसी दिन वहीँ बैठ कर अपने शरीर भी छोड़ दिये। अब वहां इन लोगों के लिये एक सुंदर धार्मिक स्थान बन गया है। काबिनी नदी के तट पर उस स्थान का नाम अभी भी मल्लनमूलई ही है।

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